जिंदगी जब इम्‍तहान ले, तो धैर्य से काम लें

जिंदगी जब इम्‍तहान ले, तो धैर्य से काम लें

जिंदगी कई बार ऐसे इम्‍तहान लेती है कि सांस लेना भी बहुत मुश्‍किल हो जाता है। ऐसे में लगता है यह सब मेरे ही साथ क्‍यों हो रहा है। क्‍या भगवान को मेरे ऊपर जरा सा भी तरस नहीं आता है। मगर आप अकेले नहीं हैं, जिसके हिस्‍से जिंदगी का यह इम्‍तहान आया है। दुनिया में ऐसे न जाने कितने होंगे, जो आपसे भी ज्‍यादा मुश्‍किल परिस्‍थिति का सामना कर रहे होंगे। बस वह शायद आपकी तरह रोने की जगह अपने हालात से निपटने का रास्‍ता खोज रहे होंगे।

जॉर्ज डिकसन भी अपने हालात से लड़े और विजेता बनकर निकले। अमेरिका के पनामा में जन्‍मे जॉर्ज जब 14 महीने के थे तो उन्‍हें स्‍किन इनफेक्‍शन हो गया था। काफी इलाज के बावजूद उनका संक्रमण ठीक नहीं हुआ और डॉक्‍टरों को उनकी जान बचाने के लिए उनके हाथ और पैर काटने पड़े। इस परिस्‍थिति से निपटना उनके और उनके मां-बाप के लिए निपटना आसान नहीं था। उन्‍हें काफी महंगे इलाज की जरूरत थी। इसलिए उनके माता-पिता को उन्‍हें गोद देने का फैसला करना पड़ा।
इसके लिए उन्होंने ‘हीलिंग द चिल्ड्रन’ सोसाइटी की मदद ली। जॉर्ज जब यहां थे तो उनकी मुलाकात जॉन और उनकी पत्‍नी फेये डिकसन से हुई। यह युगल जॉर्ज का वॉलंटियर परिवार बन गया। और 2012 में उन्‍हें पूरी तरह से गोद ले लिया। जॉन और फेये ने जॉर्ज के लिए बेहतरीन इलाज और पढ़ाई की व्यवस्था की। उसके बड़ा होने पर उन्होंने उसे, उसकी शारारिक अक्षमता से उबरने के लिए फुटबाल खेलने के लिए प्रेरित किया और उसके लिए एक कोच की व्यवस्था की।

जॉर्ज को शुरु में लगा शायद वो प्रोस्थेटिक अंगों से फुटबाल नहीं खेल पाएगा लेकिन जैसे-जैसे उसने प्रेक्टिस शुरू की उसका आत्मविश्वास बढ़ता गया। अपने आत्मविश्वास, माता-पिता की प्रेरणा और कोच की कड़ी ट्रेनिंग की बदौलत उसे अपनी स्कूल की फुटबाल टीम में चुन लिया गया। जॉर्ज अपनी स्‍कूल की फुटबाल टीम का स्‍टार खिलाड़ी बन गया। जॉर्ज अपनी स्‍कूल टीम के स्‍टार खिलाड़ियों में से एक थे। वह प्रोस्‍थेटिक की मदद से फुटबॉल खेलते रहे। जॉर्ज के लिए इतनी कम उम्र में विकलांगता को अपनाना काफी मुश्‍किल था। फिर भी उन्‍होंने खुद को सफल और सक्षम बनाने के लिए कड़ी मेहनत की। हालात से समझौता नहीं किया।

जॉर्ज की कहानी से यह 3 बातें सीखी जा सकती हैं

हमारे सामने चाहे जैसे हालात हों, उनके सामने घुटने नहीं टेकने चाहिए। उनका डटकर मुकाबला करना चाहिए।
हमारी तकदीर की चाबी खुद हमारे हाथ में होती है। अपनी मेहनत और इच्‍छाशक्‍ति से हम हार को भी जीत में बदल सकते हैं।
अपने हालात से नाराज होकर दूसरों को उसके लिए जिम्‍मेदार नहीं ठहराना चाहिए। खासतौर पर अपने परिवार या माता-पिता को। हो सकता है उनके सामने आपकी बेहतरी के लिए और कोई विकल्‍प ही न हो।

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