जलवायु परिवर्तन के पेरिस समझौते को तोड़ चुके अमेरिका की छवि सुधारने के लिए वहां के गैर सरकारी संगठन सक्रिय हो गए हैं। इसके लिए ग्लोबल क्लाइमेट एक्शन समिट के रूप में संगठनों के एक अच्छा प्लेटफार्म मिल गया है। न्यूयार्क के पूर्व मेयर माइकल ब्लूमबर्ग और उसे जुड़े कई संगठनों की तरफ से रिपोर्ट जारी की गई है।
इसमें दावा किया गया है कि अमेरिका पेरिस समझौते के तहत घोषित अपने लक्ष्यों को 2025 तक हासिल कर लेगा। हालांकि ट्रंप प्रशासन की तरफ से इस बाबत कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है लेकिन संगठनों की तरफ से की जा रही इस कवायद को अमेरिका की छवि सुधारने का प्रयास माना जा रहा है। हालांकि यह साफ नहीं है कि यह प्रयास सरकार की तरफ से किए जा रहे हैं। या संगठनों की यह अपनी पहल है। लेकिन इससे अमेरिका अपनी बात रखने में कामयाब होता दिख रहा है। पेरिस समझौते तहत अमेरिका को 2025 तक उत्सर्जन में 26-28 फीसदी तक की कमी लानी है।
इसी प्रकार कैलिफोर्निया के गवर्नर द्वारा ग्लोबल क्लाइमेट एक्शन समिट के आयोजन के पीछे भी राजनीतिक मंशा ही देखी जा रही है। पहल की भले ही पूरी दुनिया में सराहना हो रही है कि सभी क्रियान्वयन एजेंसियों को एक मंच पर लाया गया है। लेकिन जानकारों का यह भी कहना है कि परोक्ष रूप से अमेरिका यह दिखाना चाहता है कि पेरिस समझौते से अलग होने के बावजूद वह जलवायु परिवर्तन के खतरों को लेकर न सिर्फ चिंतित है और काम भी कर रहा है।
ग्लोबल क्लाइमेट एक्शन समिट के पूर्व भी अमेरिकी संगठनों, कंपनियों एवं नागरिकों के फोरम की तरफ से एक लंबी चर्चा ‘वी आर स्टिल ऑन’ की गई। जिसका मकसद यह था कि जो काम सरकार नहीं कर रही है, वह हम कर रहे हैं।
बता दें कि संयुक्त राष्ट्र के 1992 में रियो में हुए पृथ्वी सम्मेलन को स्वीकार करने वाले कुल 197 देशों को कान्फ्रेंस ऑफ पार्टी कहा जाता है। उसके बाद से लगातार कान्फ्रेंस ऑफ पार्टी की बैठकें हो रही हैं और नए समझौते भी हुए हैं। पेरिस समझौते पर सीरिया, निकरागुआ ने अपने देश के निजी कारणों से हस्ताक्षर नहीं किए हैं। इस पर कुल 195 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं। लेकिन अमेरिका इसे तोड़ चुका है। इनमें से भारत समेत 180 देश इसे अपने देश में भी संस्तुति दे चुके हैं।
अमेरिका के पेरिस समझौते से बाहर होने से सबसे ज्यादा झटका जलवायु कोष बनाने के प्रयासों को लगा है जिसमें 2020 तक प्रतिवर्ष सौ अरब डॉलर की जरूरत है ताकि गरीब और विकासशील देशों को मदद दी जा सके। ओबामा प्रशासन ने इसके लिए तीन अरब डॉलर देने की बात कही थी। लेकिन साफ है कि अमेरिका इसमें किसी प्रकार की मदद का इच्छुक नहीं है और संभवत यही समझौता तोड़ने की भी वजह है।