सावन का महीना दो चीजों के लिए जाना जाता है। एक कामदेव और दूसरा प्रकृति का उत्सव। इस महीने भगवान शंकर ने कामदेव के मान का मर्दन किया था। कैसे। आइये जानते हैं। एक बार नारद जी ने कठोर तप किया। इंद्र को लगा कि नारद जी उनका सिंहासन हासिल करने के लिए ही तप कर रहे हैं। सिंहासन की नींव बहुत ही हल्की होती है। वह सदा ही भयभीत रहती है। इंद्र भी भयभीत थे कि कहीं नारद जी उनके सिंहासन पर न बैठ जाएं। इंद्र ने नारद जी की तपस्या भंग करने की सोची। सहारा लिया-कामदेव का। कामदेव तो इस कार्य में निपुण हैं। वह कई अवसरों पर यह काम सभी के लिए कर चुके थे। इंद्र ने कामदेव से कहा कि महर्षि नारद कठोर तप कर रहे हैं। लगता है, उनका इरादा मेरी सत्ता प्राप्त करना है। तुम वहां जाओ, और तपस्या भंग कर दो। कामदेव अपनी लीला-उपक्रम दिखाते हुए वहां पहुंचते हैं। कामदेव ने एक मोहक उपवन का निर्माण किया। अप्सराएं नृत्य करने लगीं। कामदेव ने हर जतन किया, लेकिन महर्षि नारद जी तपस्यालीन ही रहे। हारकर कामदेव वापस चला गया। कामदेव ने इंद्र से कहा कि नारद जी ने मुझको हरा दिया। मैं अब तक कभी भी पराजित नहीं हुआ हूं। लेकिन नारद की तपस्या को भंग नहीं कर सका। उधर, नारद जी तपस्या पूर्ण करके उठे। गर्व से सीना चौड़ा करते हुए। अहंकार उनके मुख मंडल पर छा गया। जिसको कोई नहीं हरा सका, मैंने उस कामदेव को हरा दिया। कामदेव मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सका। उनको क्या पता था कि यह उनका नहीं, बल्कि उस धरती का कमाल था, जहां भगवान शंकर ने कामदेव को शिकस्त दी थी।
नारद जी का मान मर्दन
कामदेव को हराकर नारद जी फूले नहीं समाए। वह दौड़े-दौड़े शंकर जी के पास गए और पूरा वृत्तांत कह सुनाया। शंकर जी मंद-मंद मुस्कराए। फिर बोले- प्रिय नारद, तुमने जो यह कमाल किया है, वह किसी अन्य से मत कहना। विष्णु को तो कदापि नहीं। नारद जी ने मन ही मन विचार किया, शंकरजी तो कहते ही रहते हैं। लगता है, भोले बाबा को मुझसे जलन हो गई कि मैंने कामदेव को हरा दिया। जब घमंड होता है तो यही होता है। बुद्धि और विवेक के द्वार बंद हो जाते हैं। नारद जी के साथ भी यही हुआ। वह भागे-भागे ब्रह्मा जी के पास पहुंचे और कामदेव को हराने की बात कह डाली। ब्रह्मा जी बोले, वाकई नारद तुमने तो कमाल कर दिया। इसके बाद भगवान विष्णु के पास पहुंचे। शंकरजी ने मना किया था कि विष्णु के पास कदापि नहीं जाना। लेकिन नारद जी नहीं माने। भगवान विष्णु नारद जी को देखते ही समझ गए कि शंकर ने ही इनको मेरे पास भेजा है। नारद जी ने पूरी कहानी सुना दी। विष्णु जी ने उनको शुभकामनाएं दीं।
नारद जी का बना दिया वानर रूप
वहां से नारद जी चले तो क्या देखा….एक सुंदर नगर है। वहां के राजा शीलनिधि की पुत्री थी विश्वमोहिनी। नारद जी ने पहले उसको आशीर्वाद दिया। फिर विचार किया कि यदि इस कन्या से उनका विवाह हो जाए तो कैसा रहेगा। उन्होंने अपनी इच्छा भगवान विष्णु को बताई। विष्णु जी ने कहा, चिंता मत करो। आप स्वयंवर में जाओ। भगवान ने नारद जी का वानर रूप कर दिया। स्वयंवर में नारद जी कभी इधर बैठते तो कभी उधर। हर प्रयास करते कि माला उनके गले में विश्व मोहिनी डाल दे। लोग उपहास उड़ाने लगे। शिव के दो गण कहने लगे… पहले दर्पण तो देखो। इस तरह नारद जी काम के वशीभूत होकर तप से उपहास के कारण बन गए।
शंकर जी की सीख
- -कर्ता हम नहीं, कर्ता कोई और है।
- -स्थान का विशेष महत्व होता है। इसी को परिवेश कहते हैं। नारद जी ने समझा, मैंने कामदेव को हराया। लेकिन उनको नहीं पता था कि यह उस जगह का कमाल है, जहां कामदेव को शंकर जी ने भस्म किया था।
- -अपनी उम्र, तपस्या, मान, मर्यादा का सम्मान करो। उसका ध्यान रखो। यही काम क्रीड़ा है।
- – कुछ रहस्य और बातें छिपानी भी चाहिएं। हर बात किसी को जाहिर नहीं करनी चाहिए क्यों कि इससे उपहास ही होता है। जैसे नारद जी का हुआ।