हमारी राजनैतिक परम्परा है कि नई सरकारो के गठन के बाद नामांकन से बनाये गये निगम, मण्डल और अकादिमियो के राजनैतिक अध्यक्ष वगैरह तो स्वतः ही इस्तीफा दे देते हैं। या नये राजनैतिक समीकरण में शामिल होने के मध्यस्थ जुगाड़ लेते हैं। पुराने राज्यपाल जैसे तैसे अपना बाकी का कार्यकाल निकालने का यत्न करते हैं। मेरा मानना है कि कभी जभी सार्वजनिक रूप से बीमार भी होते रहना चाहिये क्योकि यदि सत्ता परिवर्तन पर नये प्रमुख से नेता जी की पटरी नहीं बैठती तो बीमारी इस्तीफा देने के काम आती है।
जब मेरा बेटा छोटा था, तब उसे बेहिसाब गुस्सा आता था। उसके मन की न हो तो उसके माथे की नसे तन कर उभर आती थीं। एक दफे उसे गुस्सा क्या आया उसने ड्राइंग रूम की सेंटर टेबल पर रखी एक एंजिल की मूर्ति पर अपना आक्रोश व्यक्त कर डाला और मूर्ति नीचे गिरकर चकनाचूर हो गई। मूर्ति कीमती तो थी ही उससे हमारा भावनात्मक लगाव था, जब हम विदेश गये थे तब उसे स्मृति चिन्ह के रूप में लेकर आये थे, और ड्राइंगरूम में वह अपनी उपस्थिति से वह हमारी विदेश यात्रा की गौरव गाथा भी बयान करती थी। नये अतिथियो को वार्तालाप प्रारंभ करने का मौका भी दे देती थी। खैर तात्कालिक रूप से तो बेटे को मम्मी से कुछ डांट पड़ी, कुछ मैने उसे मनाया, पुचकारा। पर फिर हमने बेटे के गुस्से को नियंत्रित करने के संबंध में कार्य किया और धीरे धीरे वह शांत चित्त गंभीर बनता गया।
देश में विदेशी चाल चलन, रहन सहन, पहनावे उढ़ावे के अनुकरण का चलन है। विदेशी फिल्मो की नकल भी बुरी नही लगती। पर विदेशी तर्ज पर चौराहे की मूर्तियो पर गुस्सा निकालना अप्रासंगिक है। सद्दाम या लेनिन की मूर्तियां विदेशो में इसलिये तोड़ी गईं थी क्योकि उन शासको ने, जब वे सत्ता में थे अपने इर्द गिर्द सारा ध्रुवीकरण कर रखा था। सारे चौराहो पर ज्यादातर मूर्तियां ही उन्हीं की थी। अतः जब लम्बे पुनर्जागरण के बाद सद्दाम की फांसी के साथ सत्ता परिवर्तन हुआ तो जन आक्रोश उसकी मूर्तियो पर निकलना स्वाभाविक ही था। सद्दाम की मूर्तियां उसकी दासता और क्रूरता का अहसास करवातीं, अतः उन्हें इराक में हटाना किंचित उचित ठहराया जा सकता है। पर सारी धान २२ पसेरी नही हो सकती। हमारे देश में स्वाभाविक विविधता है। हमारा जनमत स्वतः ही नैसर्गिक न्याय का अनुपालक है। इसीलिये हमें परिपक्व लोकतांत्रिक राष्ट्र कहा जाता है। उत्तर प्रदेश की एक महिला नेता ने जब सारे प्रदेश में अपनी मूर्तियां लगवाने का काम करना शुरू किया तो जनता ने अगले ही चुनावों में उन्हें ही सत्ता से उखाड़ फेंका।
पर हाल ही जिस तरह पूरब से दक्षिण तक मूर्तियां तोड़ने की घटनायें शुरू हुई तो मुझे इस मामले में पाश्चात्य अंधानुकरण की लोगो की वैचारिक कमजोरी पर ही गुस्सा आ रहा है। यदि इस शैली की राजनीति को प्रश्रय दिया गया तो सवाल है कि क्या हर सत्ता परिवर्तन के साथ हम हर बार चौराहे के प्रेरणा पुरुष बदलते रहेंगें ? चौराहो पर संकट के इस समय में, वर्तमान परिस्थितियों में वे चौराहे कितना इत्मिनान और सुरक्षित अनुभव कर रहे होंगे जहां किसी नेता की मू्र्ति नहीं किसी कला का प्रदर्शन स्थापित होगा। इन हालात में ला एण्ड आर्डर की दृष्टि से शायद भविष्य में कोई कानून ही बन जाये कि चौराहो में मूर्तियो की स्थापना नही की जायेगी। वैसे फिलहाल मूर्तिकारो की महफिल में गहमा गहमी है, व्यवसायिक रूप से सफल मूर्तिकार दोनो ही प्रतीको की मूर्तियां बनाकर तैयार रख रहे हैं, कब कौन खरीददार आ जाये तोड़ने के लिये या सुस्थापित करने के लिये मूर्ती की खरीददारी के लिये। पता बताने के लिये अब किसी को चौराहे की पहचान उस पर लगी प्रतिमा से बताना बंद करना पड़ेगा अन्यथा व्यक्ति भटकता ही रह जायेगा, जैसे देश की गरीब जनता भटकती रही है विकास मंजिल की खोज में आजादी के बाद से अब तक।