सड़क हादसों में घायलों की मदद करने वालों के अधिकारों को लेकर 2016 में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले ‘गुड सेमेरिटन लॉ’ के बारे में 84 फीसदी लोगों को जानकारी नहीं है। हैरत की बात यह है कि अनभिज्ञ लोगों में पुलिस अधिकारी, डॉक्टर, मेडिकल पेशेवर, अस्पताल प्रशासन और ट्रॉयल कोर्ट के अधिवक्ता भी शामिल हैं।
सड़क सुरक्षा को सुदृढ़ करने के लिए एक दशक से प्रत्यनशील सेफ लाइफ फांउडेशन (एसएलएफ) के संस्थापक पीयूष तिवारी ने उपरोक्त जानकारी देते हुए कहा कि गुड सेमेरिटन लॉ को लेकर देशभर के 11 शहरों में अध्ययन कराया गया। इस साल अप्रैल से शुरू किए गए इस अध्ययन में दिल्ली, कानपुर, वाराणसी, लुधियाना, इंदौर, जयपुर, चेन्नई आदि शहरों के 3667 लोगों से उक्त कानून पर चर्चा की गई। इनमें पुलिस अधिकारी, अस्पताल प्रशासन, मेडिकल पेशेवर, डॉक्टर, अधिवक्ता आदि शामिल थे। पीयूष तिवारी ने बताया कि एलएसएफ की ओर से दायर की गई एक जनहित याचिका में सुप्रीम कोर्ट ने मार्च 2016 में गुड सेमेरिटन लॉ पर अपना फैसला दिया था।
नए कानून में घायलों की सहायता करने वालों से पुलिस जबरिया नाम, पता, मोबाइल नंबर नहीं पूछ सकती है। उन्हें थाने नहीं बुलाया जा सकता है। यह उनकी इच्छा पर निर्भर करता है। इस प्रकार अस्पताल में डॉक्टर उन्हें रुकने पर विवश नहीं कर सकते हैं। उनका निजी विवरण नहीं ले सकते हैं। चश्मदीद गवाह के तौर पर कोर्ट में उसे बार-बार नहीं बुलाया जा सकता है। सिर्फ एक बार गवाही ली जाएगी।
तिवारी ने बताया कि अनुसंधान एजेंसी- एमडीआरए के अध्ययन में दुखद स्थिति सामने आई है कि आम लोगों के अलावा शिक्षित समाज के लोगों को उक्त कानून की जानकारी नहीं है और 16 फीसदी जानते हैं, फिर भी इसका पालन नहीं कर रहे हैं। सेफ लाइफ फांउडेशन भारत में सड़क हादसों में मृतकों को बचाने के लिए 10 साल से काम कर रहा है।
महाराष्ट्र सरकार के साथ मिलकर एसएलएफ ने मुंबई-पुणे एक्सप्रेस-वे पर 30 फीसदी तक हादसों में कमी की है। इसके अलावा एसएलएफ विभिन्न एक्सप्रेस-वे पर जीरो फैटेलिटी कॉरिडोर योजना पर काम कर रहा है।
हादसे होने पर लोगों का रवैया
– 64 फीसदी पुलिस अधिकारी मानते हैं कि सेमेरिटिन का निजी विवरण लिया जाता है।
– 96 फीसदी पेशेवरों ने माना कि अस्पतालों में नए कानून संबंधी चार्टर चस्पा नहीं हैं।
– 29 फीसदी लोग फोन कर एबुलेंस बुलाना पंसद करते हैं।
– 72 फीसदी लोग आज भी सड़क पर घायलों को मदद करने से हिचकते हैं।
– 28 फीसदी लोग ही सड़क पर पड़े घायल को अस्पताल पहुंचाने की हिम्मत रखते हैं।
– 12 फीसदी लोग ही पुलिस बुलाने की हिम्मत रखते हैं।